Monday, January 3, 2011

लगे हैं चुपचाप गुजरने

लगे हैं चुपचाप गुजरने
पेड़, पहाड़, हवा, नदी, झरने

बीत गया वो पल भी
जो आया था
एक टिटहरी सा
चोंच में सुख की रेत लिए
दुख के सागर को भरने

रात रोज ही होती है
ये अंधियारा भी
नया नहीं है
फिर हर आहट से क्यों
दिल लगता है डरने

बौरा जाता है मन
बेकसी, बेखुदी
और बेबसी का आलम ये
जिस डाल पे बैठे
लगे वही कुतरने

फूल खिलें, मुरझाएं
न रंग शेष, न गंध शेष
कोई पास न आए
भर आई है, जबसे देखा
ये मंजर जिस भी नजर ने

फिर लौटेगा,
बीता सब कुछ
सिमटेंगे सब बिखरे सपने
कभी तो दिन ये भी
होंगे शुरू बुहरने

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