Wednesday, December 7, 2011

एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह

एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह
बिखरे मोती मन के मैं पिराता किस तरह

वो मिजाज मौसम का
वो बासंती बयार का
वो फिजाओं की गुनगुन
वो राग मल्हार
अंजान सुरों में खो गई
छोड़ पीछे एक गुबार
गीत उसके मैं गाता
तो गाता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

वो चिनारों की झूम
वो सागर की सरगोशी
वो बादलों की हलचल
वो नदियों की शोखी
उस तलक पहुंची कभी
न सदा मेरी न खामोशी
हाल-ए-दिल अपना उसे
मैं सुनाता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

वो जुगनू की झिलमिल
वो चांद सी सहेली
कभी अंबर में डोली
कभी तारों से खेली
कहां से आई, कहां गई
वो रात सी पहेली
किससे पूछता उसका पता
कोई बताता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

वो तिलिस्म अंधेरे का
वो शाम की अरुणाई
वो सोचों की आवारगी
वो घटाओं की सुरमाई
वो गरूर पर्वत का
वो झीलों की गहराई
थाह उसकी पाता
तो पाता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

वो चिडि़यों की चहक
वो सुबह की किरन
वो फूलों की महक
वो रेशम की छुअन
इक तरफ चाह उसकी
एक तरफ मेरी थकन
बीच में सदियां थी कईं
पार जाता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

वो महिवाल की सोणी
वो मजनूं की पीर
वो फरहाद की शीरीं
वो रांझे की हीर
उसके हाथों में पंख थे
मेरे पांवों में जंजीर
पास उसके जाता
तो जाता किस तरह
एक ख्वाब थी वो छू पाता किस तरह...

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